Tuesday, July 26, 2011
दो आंसू
जब भी ज़िन्दगी में ये दिल घबराया
जब आँखों को अपना ही अश्क नज़र आया
जब हम ही हमारे हमसफ़र हो गए
फीके पड़े जब रंग पुराने नए
कमी जब किसी ग़म की न रही
हमने सोचा, दो आंसू और सही
पलकें जब बारिशों में नाम होती थी
नींदें जब सन्नाटों में खोती थी
जब भी न दिखा क्या है उस पार
जब भी सोचा - बस रो लें आखिरी बार
घंटों जब ख्वाहिशें पलकों से बही
हमने सोचा, दो आंसू और सही
हमे कभी खुल के रोना नहीं आया
औरों की ख़ुशी में शरीक होना नहीं आया
कोशिशें जब भी हालात से हार जाती
हर सांस जब गाल भिगो जाती
जब भी कहा खुद से - कल तक जियें या नहीं
हमने सोचा, दो आंसू और ही सही...||
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