पानी ठहर गया है
छू के कुछ लहरें बना दो
शायद किनारे तक जा पाऊं
तेल ख़त्म हो चला है
इससे पहले की काला पड़ जाऊं
एक फूँक में बुझा दो
धूप में खूब सूख, जल चुका
अबकि बरसो, तो बहा ले जाओ
बसंत का इंतज़ार तो ना रहेगा
एक दफा ज़ोर से छेड़ दो
आखिरी तार भी तोड़ दो
बड़ा तनहा है बेचारा
स्याही भी ख़त्म हो चली है
लिखाई धुंधली हो रही
आखिरी दो पन्ने फाड़ देना
Tuesday, September 2, 2008
Monday, July 28, 2008
BATHROOM
Saturday, July 5, 2008
मैं और तुम
मैंने तो कभी तांम्बे का सिक्का भी न छुआ होगा
और तुम सोने की बाली
मैं रंग उड़ा बादल
बरसो से बंद ताले के पीछे
बरसना-वरसना भूल चुका
तुम अभी शाम की भीनी धूप में उभरता इन्द्रधनुष
मैं तपती धूप में सड़क पे नंगे पाँव चलता निर्झर
न नीर है, न ही झर सकूँ
कुछ थोडी-मोड़ी बूँदे
बाकी वही तलहटी के कंकड़-पत्थर
तुम वर्षा के बाद
साफ़-सुथरे आसमान पे पहली पहली पतंग
मैं काली रात में दीवाना झिलमिल तारा
उस एक चाँद के प्यार में पागल
जिसे पूरा जग चाहता है
ये भी न मालूम की जब सवेरे
सूरज चाँद को निगल जाएगा
तब तारे को अपने नूर का सुरूर भी न नसीब हो पायेगा
मैं भँवरा, ओस की बूँद पे मर मिटा
जो पौ फटे फिजा में घुल जायेगी
तुमने भी तो देखा होगा?
तनिक ऊंची डाल पर बैठी चिड़िया
चोंच भर बादल दबोच कर घोंसले में रख लेना चाहती है
क्यूँ, आजकल क्या ख्वाब भी सही-ग़लत होने लगे हैं?
और फ़िर वे कहते हैं सब जायज़ है
मोहब्बत और जंग में,
पर क्या हम मध्य-वर्गीय लोग
अपनी पाँच फुट सात इंच की जिंदगी में
मोहब्बत और जंग के अलावा भी कुछ करते हैं?
तो क्या इस जिंदगी में सब कुछ जायज़ है?
और तुम सोने की बाली
मैं रंग उड़ा बादल
बरसो से बंद ताले के पीछे
बरसना-वरसना भूल चुका
तुम अभी शाम की भीनी धूप में उभरता इन्द्रधनुष
मैं तपती धूप में सड़क पे नंगे पाँव चलता निर्झर
न नीर है, न ही झर सकूँ
कुछ थोडी-मोड़ी बूँदे
बाकी वही तलहटी के कंकड़-पत्थर
तुम वर्षा के बाद
साफ़-सुथरे आसमान पे पहली पहली पतंग
मैं काली रात में दीवाना झिलमिल तारा
उस एक चाँद के प्यार में पागल
जिसे पूरा जग चाहता है
ये भी न मालूम की जब सवेरे
सूरज चाँद को निगल जाएगा
तब तारे को अपने नूर का सुरूर भी न नसीब हो पायेगा
मैं भँवरा, ओस की बूँद पे मर मिटा
जो पौ फटे फिजा में घुल जायेगी
तुमने भी तो देखा होगा?
तनिक ऊंची डाल पर बैठी चिड़िया
चोंच भर बादल दबोच कर घोंसले में रख लेना चाहती है
क्यूँ, आजकल क्या ख्वाब भी सही-ग़लत होने लगे हैं?
और फ़िर वे कहते हैं सब जायज़ है
मोहब्बत और जंग में,
पर क्या हम मध्य-वर्गीय लोग
अपनी पाँच फुट सात इंच की जिंदगी में
मोहब्बत और जंग के अलावा भी कुछ करते हैं?
तो क्या इस जिंदगी में सब कुछ जायज़ है?
Wednesday, February 27, 2008
खेल खेल मे
जब बचपन था
अल्हड़-सा मन था
खिड़की पे रेंगती रौशनी नही
धूप मे नहाता आँगन था
कलाई पर लगे टैटू मे
जूतों मे लगी बत्तियों मे
किताबों मे छुपाई नंदन मे
झूठ-मूठ के क्रंदन मे
हँसी मे खेल मे
प्लास्टिक वाली रेल मे
झांकता भरपूर जीवन था
अब जब जवान हैं
कहने को बुद्धिमान हैं
माँ की चिंता, पिता की सीख
पेपर ख़राब हो, टीचर की भीख
प्रियजनों की आशाए,
गुरुजनों की भाषाये
जेब, जॉब और जनाना
कैंटीन की मैगी, मेस का खाना
सिगरेट का धुँआ, बीयर की झाग
तेल ख़त्म है, रूई को जलाती, टिमटिमाती आग
अल्हड़-सा मन था
खिड़की पे रेंगती रौशनी नही
धूप मे नहाता आँगन था
कलाई पर लगे टैटू मे
जूतों मे लगी बत्तियों मे
किताबों मे छुपाई नंदन मे
झूठ-मूठ के क्रंदन मे
हँसी मे खेल मे
प्लास्टिक वाली रेल मे
झांकता भरपूर जीवन था
अब जब जवान हैं
कहने को बुद्धिमान हैं
माँ की चिंता, पिता की सीख
पेपर ख़राब हो, टीचर की भीख
प्रियजनों की आशाए,
गुरुजनों की भाषाये
जेब, जॉब और जनाना
कैंटीन की मैगी, मेस का खाना
सिगरेट का धुँआ, बीयर की झाग
तेल ख़त्म है, रूई को जलाती, टिमटिमाती आग
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