Wednesday, February 27, 2008

खेल खेल मे

जब बचपन था
अल्हड़-सा मन था
खिड़की पे रेंगती रौशनी नही
धूप मे नहाता आँगन था
कलाई पर लगे टैटू मे
जूतों मे लगी बत्तियों मे
किताबों मे छुपाई नंदन मे
झूठ-मूठ के क्रंदन मे
हँसी मे खेल मे
प्लास्टिक वाली रेल मे
झांकता भरपूर जीवन था



अब जब जवान हैं
कहने को बुद्धिमान हैं
माँ की चिंता, पिता की सीख
पेपर ख़राब हो, टीचर की भीख
प्रियजनों की आशाए,
गुरुजनों की भाषाये
जेब, जॉब और जनाना
कैंटीन की मैगी, मेस का खाना
सिगरेट का धुँआ, बीयर की झाग
तेल ख़त्म है, रूई को जलाती, टिमटिमाती आग

3 comments:

Anonymous said...

hey, you are a wonderful poet i feel...

keep writing...
love this one....
the truth behind the poem, is really something...

वर्तिका said...

ek hi jeevan ke do alag alag roop... donohi jeevan kaa sunder aur sateek chitran kiya hai tumne...

Shantanu said...

bahut sahi...:)